फ़ुरसत के क्षण
फ़ुरसत के क्षण
पितामही देखी नहीं,
पितामह ही थे अपने साथ।
उन्हीं के साये में पले,
सिर पर हमेशा उनका हाथ।
अवकाश हुए सर्दी के तो,
घूमे नहीं कभी भी हम।
व्यस्त थे बच्चों के संग
वार्षिक समारोह में हम।
पूरी छुट्टियां बीत गई,
तैयारियों के चलते ही।
खुल गए पुनः स्कूल,
घूमने निकले नहीं।
कैसे बताएं सुंदरता,
देखा नहीं को गोवा बीच।
चलती रही कहा सुनी,
छुट्टियों में हम दोनों बीच।
पुनः कार्य में व्यस्त हुये,
दैनिक दिनचर्या वही।
वहीं जल्दी का उठना,
लेटना विलम्ब से ही।
सुख चैन फिर खो गया,
खुशियों का भी पता नहीं।
आ जाएं फिर से छुट्टियां तो,
घूम आएं हम मन कहीं।
