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Reena Devi

Classics

5.0  

Reena Devi

Classics

अप्रतिम सौंदर्य

अप्रतिम सौंदर्य

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विचरण स्वप्न में किया

हसीन वादियों में भी।

मस्त शावक सा फिरूं

इधर कभी उधर कभी


रूप पर्वतों का निखर रहा

रंग भी देखे अनेक।

खेल रहे थे फूल पास

बह रही थी नद एक


छटा अनोखी नारियल के

तरु की देखी मैंने।

अडिग था अपने कर्म पर

तत्पर निज फल देने।


लाल, पीले, श्वेत, गुलाबी

फूलों ने मन हर्षाया था।

देकर आश्रय पर्णकुटि ने,

अपना फ़र्ज़ निभाया था।


कलकल बहती धार नदी की

मिश्री कानों में घोल रही।

पर्वतों की खूबसूरती सबके

सर चढ़कर बोल रही।


आंख खुली तो पाया मैंने

मैं घर अपने ही सोया था।

कर स्मरण मनोरम दृश्य का,

मैं प्रबुद्ध सपनों में खोया था।


कौन चित्रकार है वह,

जिसकी कूची ने रंग भरा।

वन उपवन धरा नदी,

रूप सभी का है निखरा।


कैसे रचना की प्रकृति की

सुंदर कैसे प्रयास किया।

अप्रतिम रचना से पहले,

क्या और कितना अभ्यास किया।


भरकर रंग सतरंगी हमें,

अमूल्य यह उपहार दिया।

संभाल पाए ना इस निधि को

क्यों ऐसे तिरस्कार किया।


निज स्वार्थ हेतु है मानव!

प्रकृति प्रेम बिसार दिया।

बैठे रहे जिस शाखा पर

क्यों उसको यूं निस्सार किया।


गुनहगार तुम प्रकृति के मन

क्यों बैठे हो ऐसे मौन।

विकराल रूप जो धारा इसने

तुमको फिर बचाएगा कौन।


उठो! उठो! हे मानव तुम,

परहित का प्रयास करो

सजाओ फिर से प्रकृति को

तब जीवन की आस करो।


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