वनराजा की व्यथा
वनराजा की व्यथा
हरे भरे थे वन गहरे
मैं उन में मौज उड़ाता था
कभी शिकार करता हिरण का
कभी हाथी मार गिराता था।
हर तरफ था खौफ मेरा
सब मुझको शीश झुकाते थे
न चिंता थी भोजन की मुझ को
सब मेरा हुक्म बजाते थे।
दुष्ट मानव की नजर लगी
अब कैसे तुम्हें बताऊं।
चिंता में बैठा सोच रहा
कैसे अपनी व्यथा सुनाऊं।
कैसे जाऊँ गहन कानन मैं
मानव ने उन को नष्ट किया
वनराजा कहते थे मुझ को
राज्य छीन कैसे कष्ट दिया।
निर्दयी मुझे बताते हैं ये
पर इन सा निर्दयी कौन यहां।
बर्बरता जारी अनवरत
बेघर हो अब जाये कहां।
आपदा देख सम्मुख अपने
कैसे मैं बेहोश हुआ।
स्वार्थवश काटे कानन जिसने
वो कैसे निर्दोष हुआ।
प्रजाति विलुप्त हो रही हमारी
इस पर भी कुछ विचार करो
अभ्यारण देकर हमको
हम पर कुछ उपकार करो।