बदलता रूप
बदलता रूप
वर्षाभाव में देखो कैसे,
तरुवर ने बदला अपना रूप।
हरा भरा लहलहाता था जो
कैसे इदानीम् हुआ कुरूप।
कलकल बहती नदी धारा,
देखो आज विलीन हुई।
कैसे बुझाए प्यास धरा की
स्वयं जो जल हीन हुई।
सभी ओर हमको तो अब,
रज कण ही देते दिखाई।
पेड़ काट मानव ने ही तो,
उपजाऊ भू उसर बनाई।
जिस ने दी सौगात कीमती
यह उनको संभाल न पाया।
सुंदर प्रकृति पर पड़ा कैसे,
दुष्ट प्रदूषण का साया।
मानव में भी प्रदूषण का,
कैसे साथ निभाया।
काटे हरे भरे पेड़ और
कारखानों की भेंट चढाया।
काश मानव भूल संवारे
और भरपूर पेड़ लगाए।
इनके कारण वर्षा होती,
मन बात समझ वो जाए।