फिसलती जिन्दगी
फिसलती जिन्दगी
मुझे लगता है मैं बहक गया हूं
जगह से अपनी ढलक गया हूं
पांव धरती पर पड़ता नहीं
आदर्शों पर मैं ठहरता नहीं
क्योंकि जीवन के जो समझौते हैं
वो मेरे ही हक में जाते हैं
मैं केवल स्वयं के लिए जीना चाहता हूं
अपनी श्रेष्ठता का मद पीना चाहता हूं
सुबह-शाम एक लत सी है
बस मैं हूं और मेरी मस्ती है
पर एक विचार है मन में कौंध रहा
जो अंतरात्मा तक को कचोट रहा
क्या यही जीवन का मूल है
या मानवता के लिए शूल है
क्यों छूट रही मानवीय धुरी है
क्या ऐसी मजबूरी है
यहां क्यों लोग ऐसे जीते हैं
क्यों सब के सब गये बीते हैं
इसका क्या औचित्य है
यह विषय सधन चिंत्य है।