हिन्दी और हम
हिन्दी और हम
हिन्दी की गरिमा को
क्यों आज हम खोते जा रहे हैं!
आंखें खुली हैं पर,
क्यों सोते जा रहे हैं!
सोना हमारा धर्म नहीं!
इसे खोना हमारा कर्म नहीं!
छोड़ो इस स्वांग को,
अपने आपको हम क्यों
भूलते जा रहे हैं!
झूठी आन बान शान को रो लिया!
देखो आज अपनी पहचान खो दिया!
बच्चा बच्चा मोहताज आज विदेशी,
संस्कार के होते जा रहे हैं!
अपनी जो मातृभाषा हिन्दी है!
आज विश्व के माथे की बिंदी है!
और खुद गैर भाषा के आगे,
क्यों अपना सर झुकाते जा रहे हैं!
बड़े शर्म की बात है!
हिन्दी के लिए काली रात है!
दिखा सको तो दिखाओ कोई रोशनी,
बेदर्द दरों दीवारों से टकराकर अस्तित्व,
लहूलुहान होते जा रहे हैं!
