इश्क़ नहीं, ये है रब दी मर्ज़ी
इश्क़ नहीं, ये है रब दी मर्ज़ी
न जाने कब हुआ, कैसे हुआ पर हो गया।
कितना हुआ यह तब समझ आया जब तुम्हे लगभग खो दिया।
तुम दूर हो, बहुत दूर, फिर भी छाया है क्यों ये फितूर ?
यादों का ज़िक्र और नही करेंगे, तुम्हे और परेशान नही करेंगे,
पर तुम्हे दिल की बात बताना था जरूर।
रोज़ तुम्हारी तस्वीर में मुस्कान देखके सोते हैं,
कभी कभी हँसते हैं, कभी कभी सोचते हैं,
क्या हो गया ऐसा जो हो गए हम मजबूर,
एक समय जो दिल प्यार से थे भरपूर,
आज क्यों हो गए दूर दूर।
और फिर खुद को समझाते हैं कि
होगा वही जो खुदा को है मंज़ूर।
कहा तो था किसी ने,
जो इश्क़ दी मर्ज़ी वही रब दी मर्ज़ी।
पर जब इश्क़ ही बेबस और लाचार हो जाये
तब रब ही राह दिखलाये।
इसलिए अब जो न जाये ये दर्द संभाले,
कर चले हम सब रब के हवाले।

