ये कैसी फैंटेसी बना ली तुमने ?
ये कैसी फैंटेसी बना ली तुमने ?
ये कैसी फैंटेसी बना ली तुमने ?
मेरा ज़िस्म मचल उठा जिसे पढ़ बार - बार
,मैं भी भीगना चाहती हूँ तुम्हारे संग ,
तुम जितनी बार कहो उतनी बार मेरे यार |
कौन मानेगा भला कि अब तक हम ,
इन्ही खूबसूरत फैंटेसियों के सहारे जी रहे ,
हजारों ख्वाबों को इस दिल में दबा ,
रोज रातों में तड़पती इच्छाओं के घूँट पी रहे |
ये बारह साल का वक़्त कम नहीं होता ,
किसी को अपना कहने का दम हरएक में नहीं होता ,
पता नहीं दोनो मिलेंगे भी या नहीं हम कभी ,
क्या पता यूँही दम तोड़ देंगी अपनी फैंटेसियाँ यहीं सभी |
हर रोज़ तुम्हारी वासनाओं की चाहत ,
मेरा रुप - रँग और निखारती है ,
मेरे गोरे और नग्न बदन पर .....
तेरे पसीने की बूँद फिसलती जाती है |
मेरा रोम - रोम तब हर्षित होता ,
जब तेरी चाहत का विष मेरे अंदर उतरता है ,
मेरे उलझी केश लटाओं में तब ....तेरा सारा बदन पिघलता है |
मैं हो मतवाली तेरे स्पर्श से ....तेरे मोहपाश में बँध जाती हूँ ,
तेरी गर्म नशीली साँसों से तब ,तेरे अंदर तपती जाती हूँ |
हर रात मेरे सपनो में आकर ,तू वासनाओं की गाली देता है ,
मेरी फैंटेसी को अपनी फैंटेसी से जोड़ ,
ये वैवाहिक जीवन नए मसालों से भर देता है |
कभी - कभी अब सोचती हूँ ,कि गर ये फैंटेसी ना होती तो क्या होता ?
सच कहूँ गर सुन सको तो ....मे
रा कामुक बदन तब तबाह होता ||

