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फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको

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फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा

कभी तकिया इधर रक्खा, कभी तकिया उधर रक्खा।


बराबर आईने के भी न समझे क़द्र वो दिल की

इसे ज़ेरे-क़दम रक्खा उसे पेशे-नज़र रक्खा।


तुम्हारे संगे-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया

अज़ीज़ ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा।


जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेह को

सुलूक ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत ने कर रक्खा।


बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पा का

कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोश पर रक्खा।


तेरे हर नक़्श-ए-पा को रहगुज़र में सजदा कर बैठे

जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा।


अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़त में

जो बरसा अब्र-ए-रहमत जा-ए-मय शीशे में भर रक्खा।।


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