।। पहचान ।।
।। पहचान ।।
क्या सोचा है कभी,
क्या है हमारी पहचान,
हमारा मजहब, हमारी शोहरत,
हमारे अपने या फिर बचा हुआ ईमान।
या फिर जिस पर इठलाते फिरते,
वो हमारे घर व्यवसाय और दुकान,
या कि फिर हमारे अहम ईर्षा,
या कोई सुलगता अपमान।
माथे का तिलक हो या जालीदार टोपी,
हो कोई खाप कोई जात या वर्ग,
जमाने ने हमेशा से तो,
यही पहचान है बस थोपी।
एक पहचान वो है जो जन्म से आयी,
एक मिली उस से जो शिक्षा पायी,
एक वो है जो मेरे संस्कार हैं,
एक जो अंगीकृत किये विकार है,
ये हर पहचान हमारी,
समय, माहौल और जमाने के,
रहमोकरम की बस मोहताज है,
इनमें गुम खुद को पहचानता,
हमरा बीता कल,भविष्य और आज है।
खुद की पहचान बनाने और,
दूसरों की मिटाने को,
ये ज़माना इतिहास कहता है,
और जो कभी पहचान के आडंबर से,
करके मुक्त खुद को जो अट्टहास हो,
ये जमाना नहीं बख्शता फिर भी,
वो इसे खुद का परिहास कहता है।
जीवन सारा पहचान बनाने,
बढ़ाने और निभाने में काम आता है,
और इसी भागदौड़ और भीड़ में,
इंसान खुद को कितनी बार भुलाता है,
पहचान खुद की हो जाये खुद से,
ए खुदा इसी जद्दोजहद में,
दर बदर दे के इन्तेहा कितने इंसा,
बस कतरा कतरा फना हो जाता है,
बस कतरा कतरा फना हो जाता है ।।