बसंत और सखियों का संवाद
बसंत और सखियों का संवाद
झूम उठा फिर मन मयूर है,
लो आया ऋतुराज सखी।
खोल भी दो जो छिपा के रख्खे,
दिल के सारे राज सखी।
कमल सदल सी खिली खिली,
तुम अधरो पर मुस्कान लिए।
मृगनयनी हे रूप चंचले,
कोन बसा है तेरे हिये।
भगवे वस्त्र का चोला पहने,
बासंटी पगड़ी धारे।
देश की माटी तिलक भाल पर,
वंदे मातरम के नारे।
समझ सको तो समझो उसको
मै तो उसी पे मरती हूं।
देश भक्त जो सच्चा है सखी,
प्यार उसी से करती हूं।
वो पूजे सखी भारत मां को,
मैउसकी पूजा करती हूं।
उसके प्राण है सदा राष्ट्र हित,
पर मैं उस पे मरती हूं।
अब बसंत हो वर्सा ऋतु हो या,
फिर गर्मी शीत सखी।
देश की माटी तिलक करे जो,
वो ही मेरा मीत सखी।
मेरे लिए निरर्थक है सब,
चूड़ी कंगन हार सखी।
देश के हित जो जान वार दे,
"श्री" को उससे प्यार सखी।