विरह और बसंत
विरह और बसंत
रोती फिरती राधिका अजहु श्याम ना आए।
विरह अगन में तप रही मोहे ऋतुराज ना भाये।।
पीत वर्ण काया भयी सरसों के फूलों सी।
आंखों में है लालिमा ज्यों ढलते सूरज सी।
बाते बहकी बहकी है ज्यों बसंती हवाएं।
रोती फिरती....................
फूले सरसों खेत में कोयल गीत सुनाए।
मंद मंद बहती पवन तन में अगन लगाए।
हिय में विरह की वेदना उपर से मुस्काए।
रोती फिरती राधिका.................
करती मै स्वागत तेरा हे ऋतुराज बसंत।
मेरे घर पर भी अगर आ जाते मेरे कंत।
विरह वेदना यो बड़ी घर अंगना ना सुहाए।
रोती फिरती राधिका.............
"श्री"मन बावरी हो गई रटते श्याम ही श्याम।
ना जाने किते प्रेम में उलझे है घनश्याम।
निष्ठुर ऐसे हो गए कान्हा प्रीत मेरी बिसराए।
रोती फिरती राधिका.................

