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निशान्त मिश्र

Abstract

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निशान्त मिश्र

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' तक्षक की ललकार '

' तक्षक की ललकार '

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बहुत हो गया, बोलूंगा

अब मैं तरकश खोलूँगा

मैं भी सबको तोलूँगा

बहुत हो गया, बोलूँगा


मूक बधिर बन बैठा हूं

जबसे ये चोला ओढ़ा

सज्जनता बस बहुत हुई

अब कृपाण मैं धो लूँगा


शांतिव्रत रत, मौन, नीरव

अधरों को मैं सी लूँगा

शत्रु चित्त् हरने, विष को

सुकरातों सा पी लूँगा

ऐसा सोचा था उसने


ऐसा सोचा था उसने, मैं 

श्वान सदृश ही जी लूँगा

किंतु समय पर टूटी तंद्रा

अब बदले गिन कर लूँगा


अपने पथ पर चलने को

मैं गज सा चलता जाऊँ

शत्रु श्वान हुंकारों को

दलने को मैं ललचाऊं


क्यों चुप था अब तक मैं

निष्प्राण, यही मैं सोचूंगा

शर गिनकर संतुष्ट नहीं 

सिर गिन गिन कर लूंगा


हर हर कर, हर कर में

शत सिर शत शर, क्षण में

रक्तिम् चक्षु दिए तुमने

मैं रक्तप्रपात समर दूंगा


विनय, विलाप बहुत हुए

दावानल सा खौलूंगा

शिशुपालों के शीशों से

कंदुक सा मैं खेलूंगा


फहराकर केसरिया ध्वज

शिरोधार्य मातृभूमि रज

क्षणभंगुर, नश्वर तन तज

तक्षक बन मैं जी लूंगा।


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