पगडंडी सी ज़िन्दगी
पगडंडी सी ज़िन्दगी
वो मस्त मौला थी पगडंडी से उछल कूद निकल जाती है
बचपन यूँ निकला उसका,जैसे फुर्र से चिड़िया उड़ जाती है
आयी जवानी,पगडंडी से न गुजरने की,माँ से सलाह पाती है
कुछ बाज की नज़रें,फिर भी नोच खाने को,दौड़ लगाती हैं
सोचा शादी हो जाएगी फिर तो पगडंडी की परवाह न रहेगी
पर क्या पता था कि ज़िन्दगी पगडंडी से होकर ही गुजरेगी
ज़िम्मेदारी,आने जाने वाले रिश्तेदार,उसे पगडंडी सा बना गये
जिसका जहाँ मन चला उधर ही अपने फावडे के निशान बना गये
कली से पुष्प बनने की कहानी ने उसे अब ये समझा दिया
ज़िन्दगी ने ऊँचे नीचे मार्ग से चौड़ी सड़क पर ला खड़ा किया
अब वो डरती नहीं पगडंडी से जीवन का महत्व इसी ने बताया
हो वर्षा,कड़ी धूप या शीत,पगडंडी ने ही उसे अडिग रहना है सिखाया!