ओस की बूंद
ओस की बूंद
फूलों के झूले में झूल रही थी,
मोतियों सा देह ले कर पत्तों संग डोल ही रही थी।
बांसुरी सुरीली होकर चली पुरवाई,
कलियों पर भी पड़ने लगी यौवन की परछाई।
सुनहरे बादलों की देखो फिर उतरी थी डोली,
पूर्व दिशा में सजी मनमोहक रंगोली।
पंछियों ने फिर जोर शोर से बजाई शहनाई,
सूर्य देव का उदय हुआ है हंसकर तितली बोली।
दर्शन पाने उनके मैं भी हो उठी अधीर,
नजरें भर -भर देखूं उड़ता हुआ गुलाल अबीर।
अरुण को देखते ही मैं भी अरुण हो गई,
पर उनकी कोमल किरणों से जैसे मैं चोट खा गई।
जगमग हो उठी दुनिया पर ताप उनका मैं सह न पाई,
समा गई उनकी आगोश में पर जाने ने कहां मैं खो गई।
बूंद थी मैं ओस की तब से नभ में घूम रही हूं,
प्रकाशमान इस धरती पर अस्तित्व अपना खोज रही हूं।
