भ्रमजाल
भ्रमजाल
भ्रम जाल ये कैसा फैला
खुद को खुद ही भूल चुका
ना वाणी पर संयम किसीका
उर में माया, द्वेष भरा।
कोह में अपनी विनती भुला
धैर्य भी जन भूल चुका
गरल उर में भरा है इतना
क्षमा, प्रेम करना ही भूल गया।
दया, करुणा पास नहीं
पशु के जैसा बन चुका
भलाई का दामन ओढ़ के जाने
क्यूँ मानव धर्म को भूल गया।
आत्महित में अनेत्री बन
भयंकर कालकूट को पी चुका
ईश्वर ने सबको पैदा किया
बात यह गहरी भूल गया ।
जाने कैसी मजबूरी जो
संस्कार को अपने भूल चुका
अभी भी वक़्त है थोड़ा सुधर जा
शायद राह से भटक गया।