जलता देश
जलता देश
कालकूट भरा, क्यूँ धर्मो का
ऊँच-नीच का हलाहल है
कुंठा, क्रोध से जलता देश ये
मार्ग से अपने भटक रहा है।।
अच्छाई निस्तेज हो रही
घड़ा अंध का भरा गया है
रक्त रंजित से मन:स्थिति
जग विनाश पथ बढ़ चला है।।
मंगल-सुमंगल की खबर नहीं
भावनाओं की भी कदर नहीं है
ना छोटे-बड़े का सम्मान किसी में
भेद मनों में भर गया है।।
ज्ञान-विज्ञान का ध्यान नहीं
दंगाई उपदर्वी हो चले है
रोजगार का पता नहीं
शिक्षार्थी शिक्षा से मुँह मोड़ चले है।।
स्वार्थपूर्ति धर्म बना क्यूँ
बंधुत्व वाद को भूल चुका है
भारत माँ के सुत है सारे
सबसे अलग क्यूँ खड़ा हुआ है।।
