पीड़ा
पीड़ा
कभी-कभी मन में बेहद कसक होती है।
देखते नहीं जब अपने मेरी आत्मा रोती है।
जिनके साथ खेलें, वे काल के वश हो गये।
क्लाश के वे लड़के पता नहिं कहां खो गये।
माना कि गरीबी थी, पर खुशियां बहुत अधिक थी।
मन था बहुत चंगा, विपरीत परिस्थिति थी।
प्रगति तो गई, पर अपने कहां है ?
खेत की कचरिया, बेरी के बेर कहां है।
वे पुरा के देवी मण्डप,सोकलपुर का मेला।
जब दौड़ लगाते थे, आता था कोई ठेला।
वह हरी-हरी पत्तल पंगतों का भोजन।
बिगड़ गई रंगत, किसने किया दोहन।
एक बार मुझको, मेरे दोस्तों से मिला दो।
नींद तो आती नहीं, कोई लोरी सुना दो।