पारो
पारो
पारो तुम नायिका हो
*शरतचन्द्र* के *देवदास* की
काल्पनिक या कि वास्तविक
मैं नहीं जानती
पर तुम मेरे अवचेतन में
जीवन्त रही हर पल
जीती रही में तुम्हें स्वयं में
तुम सहती रही भीरू *देव* के प्रहार
होती रहती लहू-लुहान
परन्तु प्रेम के वशीभूत हो
उफ तक न की तुमने
स्वार्थी पिता के द्वारा
बेची गयी दुहाजू को
पर होंठ सीकर निभाती रही
दोनों कुलों का धर्म
समर्पण और निष्ठा के साथ
देव का दर्द सबने जाना
और अमर कर दिया उसे
जनमानस की नज़रों में
पर न देख पाया कोई
उन यातनाओं को
जो तुमने भोगी थी दिन-रात
तुम घुटती रही
पीकर आँसू अपने
तुम झेलती रही
प्रेम व परम्पराओं
का अन्तर्द्वन्द्व
तुम निभाती रही
गृहस्थ जीवन अपना
मर्यादा में रहकर
पर क्यों पिता के सामने
मूक बनकर रह गया देव
क्यों पलायन कर गया
और छोड़ गया तुम्हारे
हृदय में प्रेम का बीज
अंकुरित करके
जो तुम्हारे आँसुओं से
प्रस्फुटित हो बन गया था
विशाल वृक्ष
जिसे कोई भी
तूफान गिरा नहीं सका
पर अन्त में
जैसे समुद्र की लहरें
टूटती हैं किनारे पर आकर
क्यों आया देव वापस
तुम्हारे दरवाज़े देह त्यागने को
जाते-जाते एक बार फिर से
दे गया तुम्हें भीषण आघात
और बना गया तुम्हें
एक जीवित।