नया कोई ख़्वाब
नया कोई ख़्वाब
नया कोई ख़्वाब देखने की आँखों को ताक़त कहाँ,
पुराने कितने ख़्वाबों का जनाज़ा पलकें उठाये हैं,
फिर नज़रों को ये भी तो काम आन पड़ा है,
लहू बहाएँ ये ग़म गरचे हम पे घिर आये हैं।
यूँ तो हैं दीग़र नज़ारे कई पर हमें फ़ुर्सत कहाँ,
अपनी तो राह में बस दर्द आँखें बिछाए हैं,
कहते हैं वो दिल का लगाना अच्छा नहीं है खेल,
कैसे बताएं उन्हें, हम दिल तोड़ आए हैं।
आशियाँ लुटा तो जाना, उन्हें जो बने थे हमदर्द,
शक्ल-ए-एहबाब में ये, अग़यार के साए हैं,
लेकर चले थे घर से, अरमान इक सवाब का,
वापसी में अजदहाम-ए-इस्यां साथ लाए हैं।
अदीब उसी को मैं भी, बना लूँ जो तुम कहो,
ज़ब्त-ए-ग़म के ग़ुर "शौक़" किसने सिखाए हैं,
सरहद-ए-बयाबाँ पे खड़े, क़िस्मत को रोते हैं,
क्या करें ग़िला किसी से, कि शजर ख़ुद लगाए हैं।
किससे करें बयाँ, अपनी ग़मग़ीनी का यारब,
खुद ही मुसर्रत के मोल ग़फ़लत लाए हैं,
अपना तो यही है, सरमाया-ए-उम्र ऐ दोस्त,
तेरे नामोतबर ये तो चंद पैमाँ हमने पाए हैं।
अब कैसे रो दें ग़मों से, हार कर हम ऐ नाक़िद,
जबकि ताउम्र ग़मों पे, ग़ाफ़िल हँसते आए हैं।