तल्ख़-नवाई है आज़कल
तल्ख़-नवाई है आज़कल


मैं हूँ और आलम-ए-तन्हाई है आजकल,
हर आरज़ू का हासिल रुस्वाई है आजकल।
मुझसे कई दीवाने दफ़न हैं यहाँ ख़ाक़ में,
क़ब्रगाह ही मैंने महफ़िल बनाई है आजकल।
जल रहे हैं अख़्तर, सुनकर मेरी सदा,
ख़ुदा तक नालों की, रसाई है आज़कल।
ख़ुद अपनी सदा से, मैं करता हूँ हज्र ऐ ख़ुदा,
होंठों पे मेरे हरदम, तल्ख़-नवाई है आज़कल।
बहुत रोज़ से बर्बाद हुआ चाहता हूँ ये मामूर,
पहलु में ख़्वाहिश-ए-ख़ाना-आराई है आज़कल।