न नज़र ख़ूँ-चकां होती
न नज़र ख़ूँ-चकां होती
ऐ क़ाश कि ख़्वाहिश,
को मेरी ज़ुबाँ होती,
बिन मुझको रुसवां किए,
कभी ये बयाँ होती।
अपने क़त्ल का इलज़ाम,
हम तुझे न देंगे,
चाहते हैं बस ये कि,
कभी नज़र पशेमाँ होती।
तेरे ग़म का ही था,
मुझको सहारा अब तक,
ग़म-ए-यार न होता,
तो ज़िन्दग़ी कहाँ होती।
क्यों आते तेरे कूचे में,
हम उस रोज़ के बाद,
देखती मुझे ख़ँदा-रू,
और तू हैराँ होती।
देखी नहीं है फुरक़त,
शायद कभी वगरना,
नाक़िद न होती तू भी,
मेरी हमज़बाँ होती।
वाक़िफ़ जो होता दोस्त,
तेरी फ़ितरत से मैं,
पैराहन होता तार-तार,
न नज़र ख़ूँ-चकां होती।