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ख्वाहिश-ए-परवाज़ नहीं

ख्वाहिश-ए-परवाज़ नहीं

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मैं हूँ वो परिंदा जिसे ख्वाहिश-ए-परवाज़ नहीं,

जुबां-ए-कमनसीब हूँ, हासिल जिसे आवाज़ नहीं

मैं बयाँ करूँ तो क्या, हादसा-ए-ज़ीस्त किससे

कि वो दास्ताँ हूँ मैं जिसका कोई आग़ाज़ नहीं

मुझको क्या महफ़िलों में तू गुनगुनाएगा मुतरिब

मैं वो ग़ज़ल हूँ जिसे मयस्सर कोई साज़ नहीं

मैं भी था कभी, इक अदद खिलता गुलशन

अब हो गया हूँ वो हुस्न जिसका कोई अंदाज़ नहीं

मुझको अब भी कभी याद आती है नाराजग़ी तेरी

वो शिकायत बन गया हूँ जिसका कोई गम्माज़ नहीं

लौट आते हैं नाले दर-ओ-दीवार से शबिस्ताँ की टकरा के

वो सदा हो गया हूँ अब मैं, जिसका हमनवाज़ नहीं

टपके है लहू जो तो न हो तुम पशेमाँ नाक़िद

मैं हूँ वो ज़ख़्म-ए-क़ारी, जिसका चारासाज़ नहीं


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