नफ़रत
नफ़रत
नफरतों का ज़हर
जब छूकर गुजरता है जिस्म-ओ-जेहन को
सब जहरीला हो जाता है
बदल जाता है हर मंज़र
चलने लगते हैं बस खंजर ही खंजर
मानवता और इंसानियत डोल जाती है
नस नस में ज़हर मिल जाता है
जाने क्या-क्या इस बीच उसर आता है
विनाश धरा, अंबर और सोच में पनपता है
इंसान फिर ना कुछ अच्छा सोचता है
तेज़ होता हैं जब-जब नफरतों का ज़हर
चीरता है विश्वास और उतारू होकर
करने लगता है आत्मघात और
भूल जाता है की
धीरे-धीरे कर रहा ये बुनियादें बर्बाद
अभिषापित हो जाते हैं कितने कुल
वंश भी हो चले अब तो नपुंसक
बैसाखी पर चलने लगे, चिरमिराने लगे
नफरतों के ज़हर पिलाए गए जब - जब
और देखते ही देखते विध्वंस हो गया अपनत्व
अब शिथिल सोच लिए मानवता द्वार खड़ी
मूक बनकर जी रहे ज़िंदगी के पथिक
ज़हरीली हवाएं अंतस तक घर कर गईं
तबाह, खंडर हो गया है हर दृशय !
