नदी
नदी
मै नदी हूँ
कहने को तो
पूज्यनीया हूँ मैं
पर क्या वास्तव में
पूज्यनीया ही हूँ मैं
तरस रही मैं !
तड़प रही मैं !
कभी इधर से सूखती
तो कभी उधर से
जलनी पड़ती है मुझे
रसायन तो कभी धुआँ
पल-पल ले रहा प्राण
रहेगा मुझमें ही सब
जला दो, गला दो
मुझमें पड़े सारे
अजैविक कचरे
नहीं उठने वाला ये
नही नष्ट होगा
होगा बस तू
हे मानव असंख्य
जीवों की मृत्यु
का दोषी होगा तू
कर दिया तेरे
रसायनों ने है
जिन्हें निष्प्राण अब
हे मानव तू कैसे जीएगा
असंख्य हत्याओं का
भार ले-लेकर
कहकर मुझको माँ
अपने ही भाई-बहनों
का ले रहे हो
तुम आज प्राण
आज हरितवर्णा फिर
जीवन को तरस रही
बोलो कैसे मिटाऊँ
अब उनकी तड़प
काल ने व्यर्थ
ही लिया है
वे सभी प्राण हड़प
बोलो कैसे जीवित रहोगे
असंख्य जीवों की
मृत्यु का भार सहोगे
अब कैसे फसलों
को भी सिंचोगे।
