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आनंद कुमार

Tragedy

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आनंद कुमार

Tragedy

औलाद

औलाद

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कड़कड़ाती ठंड में जिस्म की हड्डियां कांप रही है,

बेबस, खाली आंखें सब लोगों को झांक रही है।


एक आशियाने की तलाश में जिंदगी बेघर घूम रही है,

उम्मीद में नजरें सब से पूछ रही है, कोई कर दो मदद? 


मानवता रोज टुकड़ों-टुकडो में शर्मशार हो रही है,

मां- बाप सड़क पर और औलादों महलों में सो रही है ।


 पालन-पोषण करने वाला बुढ़ापे में अकेले मरता है।

 भूख, गरीबी से अकेला लड़ता है 


उम्र साथ नहीं दे रही होती है,

फिर भी रोज कमाने अकेला निकलता है।


बेघर को कोई आस नही होती है,

जिन्दा होते हैं मगर जिंदगी जैसी कोई बात नहीं होती है।


औलादों साथ छोड़ दें, फिर इंसान ख़ुद से लड़ता है,

पालन पोषण क्यों किया? इस अंतर्द्वंद में आगे बढ़ता है।


अगर औलादों होने पर ये दुर्भाग्य है,

तों बै-ओलांद होना सबसे बड़ा भाग्य है।


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