सीखूँ कैसे
सीखूँ कैसे
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सीखूँ कैसे ?
छंद मैं
लूँ कैसे ?
सृजन का
आनन्द मैं?
जब हर
दिन चिताएँ
जलती हों,
किसी निष्ठुर
हाथ से
बेटियाँ जब
कुचलती हों,
मर गया
हो विवेक ,
शहीदों की
चिताओं पर
रहे रोटियाँ
वो सेंक,
बोलो तो
कैसे सीखूँ
छंद मैं ?
लिखूँ कैसे
श्रृंगार मैं ?
जब श्रृंगार
धारने वाली
का ही
अपमान हो,
मनुज को
मनुजता का
न जब
भान हो,
भला फिर
कैसे सीखूँ
छंद मैं ?
हे माते !
विनती बस
इतनी करता हूँ
तुझसे,
मेरी रचनाओं में
बस
वो आग हो,
सुरक्षित
जिससे नारी का
श्रृंगार हो।