नारी और कर्त्तव्य
नारी और कर्त्तव्य
ऐसा नहीं है कि वो थकती नहीं है,
ज़िम्मेदारी है इसलिए रुकती नहीं है।
थक कर चूर हो जाती है
इसीलिए, बिस्तर पर लेटते ही सो जाती है।
लगी रहती है सुबह से शाम
निपटाती है पहले घर के, फिर बाहर के काम।
रोज़ वही रसोई और साफ-सफाई
चेहरे पर फिर उसके शिकन नहीं आई।
न कोई हाथ बंटाने वाला
न कोई साथ निभाने वाला
उसकी ज़िन्दगी में कहांँ कभी ठहराव है
क़दम क़दम पर संबंधों और कर्त्तव्यों का टकराव है
करती है अकेले ही हर काम घर का
फिर समेट कर घर को निभाती है कर्त्तव्य दफ्तर का
मायके में खुलकर जीने वाली अल्हड़ नादान लड़की
ससुराल में सौ नियमों से है बंधी रहती
रीति-रिवाज परंपरा की लक्ष्मण रेखा बांधती सीमा में।
मांँ, पत्नी,बहू, भाभी, जेठानी
हर किरदार को जीते हुए निभाती है कर्त्तव्य
नहीं कुछ चाहिए उसे
बस सास-ससुर का दुलार मिले
और पति का विश्वास और प्यार मिले।
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भूल जाती है ख़ुद के दुःख दर्द
दरकिनार कर अपनी तकलीफें
निभाती है अपना फ़र्ज़
सास-ससुर बच्चों की सेवा पति का ख़याल
बिना उफ़ किए ख़ुश रहती है हर हाल।
परिवार के सुख के लिए कितना कुछ करती है
फिर भी कभी अपने दुःख की शिकायत नहीं करती है।
औरों की सेवा में कहांँ ख़ुद का ख़याल रखती है
फिर भी वह कभी ज़िन्दगी से नहीं मलाल रखती है।
इतना कुछ कर के भी,
असंख्य कष्टों को सह के भी,
घर परिवार में उसकी थोड़ी भी कद्र नहीं है
घर की बहू है साहब बेटी थोड़े ही है।
जो रहती है पलकों पर अपने मायके में
उठाती नहीं है तिनका भर भी जिम्मेदारी
वह लाड़ली ससुराल में आकर उठाती है बोझ भारी।
चाहती कहांँ है बदले में धन या दौलत
बस चाहती है तो केवल आशीष भरे स्नेहिल स्पर्श
और अपने संबंधों से मोहब्बत।
क्या इतना भी अधिकार नहीं इस नारी का,
रीति, परंपरा, संस्कार की संवाहक दुखियारी का ?