फ़साना
फ़साना
लगे हैं लोग बहुत से हमें गिराने में।
हमारे बढ़ते हुए क़दमों को घटाने में।
सुना है रच रहे हैं साजिशें सभी मिलकर-
ख़िलाफ़ मेरे लगे हैं हवा बनाने में।
न जाने क्या उन्हें मिल जाएगा सताने में।
बिना वजह की नई रंजिशें निभाने में।
कहीं ऐसा न हो कि ख़ुद की हस्ती मिट जाए-
हमारी बढ़ती हुई साख़ को मिटाने में।
बड़े उस्ताद जो हैं चिंगारियाँ लगाने में।
मज़ा बहुत जिन्हें आता है घर जलाने में।
संभल कर देखना ओ आग लगाने वाले-
ख़ुदी के हाथ जला बैठो न जलाने में।
फ़साना मुख़्तसर इतना ही है फ़साने में।
मिलेगा कुछ भी नहीं हमको आज़माने में।
मिटा सके मेरी हस्ती को जो कभी जड़ से-
हुआ अबतक नहीं पैदा कोई ज़माने में।