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Prerna Karn

Drama

3.2  

Prerna Karn

Drama

नारी-अस्तित्व

नारी-अस्तित्व

1 min
334


सती, साध्वी, भवानी, भवप्रीता,

नारी के अनेकों रूप,

फिर डरी क्यों है नारी तू ?

जब किसी रूप में है न अबला तू।


वो सतयुग था ये कलयुग है,

धर्म के लिए तब लड़ी थी तू,

फिर आज क्यों है डरी-सी तू ?

जब किसी रूप में है न अबला तू।


कहती हो तब मर्द भी थे कर्मयोगी,

अब रहा न कोई सतकर्मी,

हैं भोग-विलास में लिप्त हुए,

नारी लाज सब खत्म किए।


सींची थी जिसने हर क्षण परिवार,

पल-पल हुआ उसी का जीना दुश्वार,

भेद दिया हर रस्म-रिवाज़,

दृष्टि में सबकी नारी-जीवन है परिहास।


नारी है बस संभोग की वस्तु,

बच्चे पैदा करने की वस्तु,

न रही है अब वो घर की लाज,

मर्दो ने दिया हर किसी को बाजार।


माना कि है ये कलयुग घोर,

तूने ही तो धरा था कभी काली का रूप,

फिर आज भी धर तू वो स्वरूप,

अब न बनने दे जीवन भवकूप।


दुर्गा, चामुण्डा, कालरात्रि, चण्डी,

तुझ जैसा विकराल न कोई,

बुराई का संहार अब करने,

हो जा फिर से तैयार तू।


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