श्रम और श्रमिक
श्रम और श्रमिक
मैं श्रमिक हूँ,
रोज श्रम करता हूँ,
हर क्षण परिश्रम कर करके,
परिवार का पोषण करता हूँ ।
मजदूरी मिलती कभी थोड़ी,
कभी होती हैं जेबें खाली,
कभी दो वक्त नसीब होता खाना,
कभी खाली पेट पकड़ सो जाना ।
कभी भगवान को रूठकर कहना,
आखिर हमें क्यों बनाया?
जीवन इतना संघर्ष भरा,
दु:ख, कठिनाईयों से घिरा हुआ ।
प्रभु राम की छवि,
आँखों में उभर जाती,
मानों कह रहे हों हमसे !
मैं तो राजा था,
फिर भी वनवास किया,
किस्मत तो तुम्हारी मुझसे अच्छी,
'विरह' नहीं, सबका साथ मिला।
ये व्यथा जब कानों में गूँजता,
मन में तब संतोष होता,
न अपनाकर हिंसा, लूट,
'परिश्रम' ही बनाया वजूद ।
न रहा आश्रित कभी किसी पर,
न अपनाया कभी आराम,
हर क्षण अपनों की खातिर,
किया समर्पित जीवन को ।