मुस्कान दर्द सा
मुस्कान दर्द सा
ग़म छुपाने का इतना आदी हो चला
गुम हो चले हैं ख़ुसी की लकीरें भी।
गर कभी कराहना चाहते लकलिफें
दबी जुबान में दर्द शिकायत करता।
बिखरे अरमानों को समेटते कोशिशें
"सब ठीक है"का मुखौटा चेहरेपे लेकिन
कुछ ही हाथ आते, फिसल जाते बहुत
सूखे होंठ मगर मुस्कान मधुर उकेरता।
खुद को झांकने की ज़रा भी जी नहीं
पहचान ना ले कहीं ख़ुद ही ख़ुद को।
मलालों में मिला कर सुर्ख़ लाल लेप
चेहरे पे मल कर आरसी निहारता।
ख़ुद ही को तौलता उनके तराज़ू में,
रोज़ रोज़ बाज़ार भाव आंकता छोटा।
खरा को खोटा बनाने की साज़िश
मज़बूर फ़र्ज़ बन बेआबृ बिलखता।
फिर भी जीने की जिद्द फौलादी,
अंदर की खोखले पन को छिपाकर।
रेसा रेसा में चिनगारी की चमक
माचिस की पेटी सी संजो के रखता।
मुस्कान दर्द सा मगर अपना सा लगता।