मुझे बहु नहीं बेटी मानो
मुझे बहु नहीं बेटी मानो
सिर पर ओढ़नी लिए सात फेरे लगाती हैं
दो परिवार को एक साथ वो जोड़ने चली जाती हैं
कैसे वो एक परिवार को हँसा जाती है
और एक के आंसुओं की घुट पी जाती है
सजने संवरने खुद को अपना परिवार मानती हैं
सबकी मर्जी से ही खुद को राजी बदलती है
सबको बराबर हक देकर सब का भोजन बनाती हैं
न लगे किसी को बुरा ये सोच - सोच वो बहुत घबराती हैं
सब के खुशी में अपनी खुशी पाती हैं
सात फेरे के वादों को सात जन्म निभाने की बात बताती हैं
जो मायके में बेटी कहलाती है वो उड़ती हैं चिड़ियों की तरह
सब को खुशियों की फुलझड़ी दे आती है
सम्मान, अधिकार सब पर बराबर का हक होता हैं उसका
सब रिश्ता वो निभाती है
जो मायके में मिला प्रेम वो ससुराल मे नहीं बाट पाती हैं
इच्छा होती हैं मायके के रखरखाव और प्रेम सब ससुराल को सौंप दूँ पर
ससुराल में उसे बेटी नहीं बहु मानते हैं
क्या फर्क बेटी, बहु में वो भी तो तुम्हारा घर संवारती है
जिस नजरिया से बेटी को देखते हो बहु को भी देखो न
ये जिंदगी उसकी भी कीमती हैं बहु नहीं बेटी मानो न
एक बहु कभी नहीं कहती मुझे बहु नहीं बेटी मानो
पर एक बेटी ये जरूर कहती है अपने ससुराल वालों से मुझे बहु नहीं बेटी मानो!!! .....