STORYMIRROR

Jalpa lalani 'Zoya'

Abstract

3  

Jalpa lalani 'Zoya'

Abstract

मोहब्बत का जनाजा

मोहब्बत का जनाजा

1 min
225

सजा-ए-इश्क़ में ऐसा ज़ख्म खाया मैंने,

ख़्वाहिश-ए-वस्ल में शब-ए-हिज़्रा पाया मैंने


बेरंग सी ज़िंदगी को रंगों से सजाया था जो,

मुकरा इकरार करके पर वादा निभाया मैंने


झूठा दिलाशा देने हमदर्द बन के था जो आया

उस की बातों में आकर खुद को सताया मैंने


बह के जज़्बातों में लगा बैठे दिल बेदर्दी से,

और दिल को तन्हाई का घर ख़ुद बनाया मैंने,


चला गया वो मारकर मुझ पे धोखे का खंजर,

अपनी मोहब्बत के जनाजे को ख़ुद उठाया मैंने।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract