मनमोहन सा वो
मनमोहन सा वो
मनमोहक मनमोहन सा वो
लीलाएं सारी कृष्ण सदृश
वाणी ऐसी की पूछो मत
घुलती थी पूरे रग-रग में
नैनो की चंचलता ऐसी
चुभती थी दिल के हर कोने में
अनुशासित था और ज्ञानी भी
थी छिड़ी अजब कहानी भी
कहता था मुझसे प्रिय हो तुम
पर प्रेम नहीं कर पाऊँगा
जो बंधा तुम्हारे बंधन में
फिर जग का ना हो पाऊँगा
रखना तुम मुझको भावों में
और अपनी हर स्मृतियों में
समझो मेरे हालातों को
और छोड़ो जिद तमाम
उसकी बातें सुन सुनकर
चिढ़ जाती थी लड़ पड़ती थी
थी दिल से मैं मजबूर बहुत
अगले क्षण फिर मन जाती थी
बातों में उसके खो जाती थी
धुन में उसके रम जाती थी
कैसा प्रेम अनोखा था
वो सच में कृष्ण सरीखा था
मनमोहक मनमोहन सा वो
क्या मैं राधा बन पाऊँगी
उसके हर भावों को
क्या संरक्षित स्वयं में रख पाऊंगी...

