"मंजिल "
"मंजिल "
चलता रह, पथिक तू अपने पथ पर
मंजिल मिलेगी तुझे, अपने बल पर
तू चल, सिर्फ़ अपनी आवाज सुनकर
छोड़ दे, चलना तू दूसरों के मत पर
यहां कोई न चाहता, तुझे तुझसे बढ़कर
चल, फूलों की घाटी में जरा, सँभलकर
फूलों को चोट देते, शूल ही छिपकर
त्याग दे, उन्हें जो तोड़ते मनोबल नर
उनसे अच्छे तो, यहां पर प्राचीन पत्थर
जो यहां पर मजबूत कर्म का देते, वर
गर जाना है, तुझको मंजिल के घर
नजरअंदाज कर दे, छद्म सुंदर नजर
अनसुना कर दे, उन्हें जो है, व्यर्थ स्वर
कर्म करता रह, तू यहां बहरा बनकर
कामयाबी यूंही नही मिल जाती है, नर
इस हेतु छोड़नी होती नींदरानी,मगर
सोना खरा होता है, आग में तपकर
मंजिल मिलती है, शूलों में चलकर
जिसका ध्यान सिर्फ अपनी, मंजिल पर
जिसके ख्वाबों मे भी चलता, कर्म सफर
वो तो झुका सकता, एकदिन अम्बर
जो व्यक्ति लक्ष्य हेतु कर्म करता निरंतर
जिन्हे भरोसा होता है, खुद के ही ऊपर
वो लोग फिर महकते है, शूलों के ऊपर
जो पराये सहारे नही, चलते अपने पैरों पर
मंजिल खुद आती है, उनके पास चलकर