मक्कारों की फ़ौज
मक्कारों की फ़ौज
अजीब सा आजकल का दौर है
हर जगह पे मक्कारों की फौज है
कोई जगह नहीं बची धरती पर,
जहां नहीं दहशतगर्दी का सौर है
चापलूसों के नाच रहे चहूँ मोर है
अजीब सा आजकल का दौर है
सब लोग लगा रहे उधर दौड़ है
जिधर साखी बेईमानी का मोड़ है
झूठ बोलना हुआ सबका शौक है
सच बोलने पे लगी लबों पे रोक है
अजीब सा आजकल का दौर है
ईमानदार शख्स कहला रहा चोर है
फिर भी साखी लगाना तू जोर है
रोशनी से अंधेरे का मिटता सौर है
वो बनता जग में साखी सिरमौर है
जिसके पास श्रम की होती डोर है
अजीब सा आजकल का दौर है
हर जगह पे मक्कारों की फौज है
पर वो क्या मंजिल पाएंगे रोज है
जिनके पैर में गुलामी का बोझ है
वो ही देते अपने को यहां खरोंच है,
जो मक्कारी की खाते कसम रोज है
अजीब सा आजकल का दौर है
हर जगह पे मक्कारों की फ़ौज है
वो क्या भला तेरा साथ देंगे साखी,
जिनके इरादों में मक्कारी बहुत है
वो लिखता फ़लक तक की सोच है
जिसके इरादों में खुद का ही जोश है
