मज़ा तो तब है
मज़ा तो तब है


वो नज़र तेरी किस काम की,
जिस में जाम छलकती न हो,
मज़ा तो तब है इस जाम का,
जिस से रोम रोम लहराता हो।
वो महफिल तेरी किस काम की,
जिस में दिल की तड़प न हो,
मज़ा तो तब है तेरी चाहत का,
जिस में दिल जले और राख हो।
वो हुस्न तेरा किस काम का,
जिस के हम कभी दीवाने न हो,
मज़ा तो तब है तेरे हुस्न का,
जिस मे हम मदहोश बन गये हो।
वो मिलन तेरा किस काम का,
जिस में इश्क का इज़हार न हो,
मज़ा तो तब है मिलन का "मुरली",
जिस में दिल से तेरा इस्तकबाल हो।