महबूब मेरे
महबूब मेरे
मुझको तो गुरूर था फख्त कतरा बन कर उभरने पर भी ।
सादगी तो हमने उनसे सीखी, जो समन्दर होते हुए भी बेनाम सा है ।।
उनके दीदार भर से हो जाती है खुदा को अता नमाज़ मेरी ।
मेरे हयात में शख़्स वो शहिब-ए-इमाम सा है ।।
उनसे इश्क करके हाफ़िज़ बन बैठा हूँ मैं ,
जैसे वो हिफ़्ज़ मुझको कुरान सा है...।।
पंखुड़ी गुलाब की सी नाज़ुक होंठ उनकी, झील सी गहरी आँखें हैं ।
सूरत उनकी क्या कहिए, शब-ए-महताब में जैसे चाँद सा है ।।
मुझको देर तलक आती है खुद से खुशबू उनकी ।
एहसास उनके प्यार का मुझ में जैसे धूपदान सा है ।।