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Dinesh paliwal

Tragedy

4.5  

Dinesh paliwal

Tragedy

मेरे शहर की वीरान गलियाँ

मेरे शहर की वीरान गलियाँ

2 mins
282


नज़र सी लग गयी न जाने क्यों,

न तो अब रौनकें ही रही,

न ही खुशियां गुनगुनाती हैं,

मायूसी नाउम्मीदी, हर तरफ काबिज़,

आशा अलविदा, बस कह के जाती है,

ए खुदा अब तो रहम कर,

कुछ तो दे सुकून के लम्हे,

मेरे शहर की वीरान गलियाँ,

आजकल बहुत डराती हैं।।


बात जिंदगी की, अब न करता कोई,

बस मौत की आहट, ही आती जाती है,

वीरान पड़े हैं यहां गुलशन सारे,

राह हर बस श्मशान, को मुड़ जाती हैं,

फिर से सहर हो उम्मीदों की,

ये मनहूसियत , अब सही न जाती हैं,

मेरे शहर की वीरान गलियाँ,

आजकल बहुत डराती हैं।।


सुनसान राहें हैं, अव्यवस्थाओं के मेले हैं,

वादों की भीड़ में, खड़े सब अकेले हैं,

वो जिन पे बीती, नहीं कोई दुश्वारी,

देते हैं दुहाई, सकारात्मकता की बस,

जिन का लूट गया, सब कुछ यहां पर,

वो तो दुख में, रोना भी जैसे भूले है,

दहशत दे जाती, अब हर फ़ोन की घंटी,

जाने कौन बुरी खबर, अब आती है,

मेरे शहर की वीरान गलियाँ,

आजकल बहुत डराती हैं।।


जिंदगी का सौदा है, हर जगह,

जान बस पैसों से, खरीदी जाती है,

गिद्ध बन के ये हैं , बस मंडरा रहे,

इनकी ये भूख मर, क्यों न जाती है,

शायद बचा लें जैसे तैसे, इंसान को हम,

पर इंसानियत तो अब, रोज़ मरती जाती है,

मेरे शहर की वीरान गलियाँ,

आजकल बहुत डराती हैं।।


आज कॅरोना की भयावह स्थिति और निराशा पर ये मेरी कविता हैं।

ये वक़्त इस आपदा को भुना कर अपनी समृद्धि बढ़ाने का नहीं

अपितु अपना इंसानियत का धर्म निभाने का है।



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