मैं वह अमर गीत बन जाऊँ
मैं वह अमर गीत बन जाऊँ
जिसको पीकर सीप तृप्त हो, मैं वह एक बूँद बन जाऊँ।
उस सागर सा होना क्या जो, प्यास किसी की बुझा न पाये ।।
ये तो सच है सबके मन में, इच्छा एक पला करती है ।
परिवर्तन की आग सभी के, भीतर कहीं जला करती है।
बुझते मन को ज्योति कर दे, मैं वह प्रणय दीप बन जाऊँ ।
उस मशाल सा भी क्या जलना, लक्ष्य पूर्व ही जो बुझ जाये...।।
स्वर्ग नर्क के कई कथानक, यों तो सभी पढ़ा करते हैं।
जिन्हें देखकर लोग सुखों के, सुन्दर स्वप्न गढ़ा करते हैं।
देख सके जो जीवन दर्शन, मैं वह दिव्य दृष्टि बन जाऊँ।
ऐसे नयन भला क्या होना जिनमें जीवन नज़र न आये।।
खिलना, मुरझाकर गिर जाना, यह फूलों की प्रकृति रही है।
किन्तु शाश्वत सत्य जान कर, व्याकुलता भी नहीं सही है।
जिसको गाकर झूमे अंतस, मैं वह अमर गीत बन जाऊँ...
ऐसा गीत भला क्या होना, पल-दो पल जो मन बहलाये...।।
