मैं कुदरत हूँ
मैं कुदरत हूँ
ऐ इन्सान इतना घमंड न कर
मुझे खत्म करने की कोशिश न कर
ये पेड़ की डालियाँ जो आज मस्त झूम रही है
तुम्हारे कानों में मधुर संगीत घोल रही है
इसके पत्ते हवा से ज़हर पी लेती है
ये हाँ ये मेरा ही तो करिश्मा है !
अपने पर इतना इतरा रहे हो
सब जान कर अनजान बन रहे हो
तुम अपने भौतिक सुख के लिए मेरा
विनाश किये जा रहे हो
पर ऐ इन्शान भूल गया है तू की
तेरे से मैं नहीं, मेरे से तू है !
मैं तो सदियों से चला आ रहा हूँ
और चलता ही रहूँगा
तेरे जैसे कई प्राणी को देखे इस धरा पर
आते और इसी धरा में मिलते हुए
कुछ अपने बल पर इतरा रहे हो
तो कोई अपने बुद्धि पर
पर अंत काल में
कुछ काम न आएगा पर !
अभी भी वक़्त है संभल जा
अपनी आदत को बदल ज़रा
कुदरत में बैर न कर
प्यार मोहब्बत से रहना सिख ज़रा
वरना बाद में पछतायेगा
जब इसी मिट्टी में मिल जायेगा।।