नए ज़माने का फैशन
नए ज़माने का फैशन
नए ज़माने का फैशन इस
मास्टर-बुद्धि को समझ ना आये
श्रीमती हमारी ‘ममी’ हो गई
और हम जीते जी ‘डैड’ कहलाये,
दुनिया के चलन से
संस्कारों का नैतिक पतन हो गया
लेकिन आज तलक हमने अपनी
संस्कारों से मुँह नहीं मोड़ा,
श्रीमती हमारी बाल कटवाकर
साधना बन बैठी,
लेकिन हमने जनेऊ पहनना तक नहीं छोड़ा,
दादाजी के ज़माने से इलाके में हमारी धाक थी
लोग मिसालें देते थे चतुर्वेदी खानदान की
लेकिन आज हमारी श्रीमती
हमारे खानदान की नींव हिला रही थी
और हमारे बेटे की विजातीय प्रेम कहानी,
बेटे-बेटी के सामने ही सुना रही थी,
श्रीमती जी की बात सुनकर
रोटी का कोर गले में ही अटक गया,
बेटे और बेटी की तरफ नज़र दौड़ाई
तो दोनों को चैन से नाश्ता करते पाया,
समझ गए क्या माज़रा था,
बात अपनी मनवाने को, ये सब बुना गया था
रहता है मूड अच्छा भोर में,
इसलिए नाश्ते की टेबल को चुना गया था,
अन्न का अपमान न हो,
इसलिए खाते वक्त हम कुछ नहीं बोलते थे,
खाना कैसा भी बना हो,
थाली में अन्न नहीं छोड़ते थे,
लेकिन आज खानदान की आन पर बन आई थी,
इसलिए नाश्ते की प्लेट को एक तरफ किया,
सबसे पहले अपनी श्रीमती को आड़े हाथों लिया,
“तुम होश में तो हो, ये क्या बके जा रही हो
मैं पढ़ाता हूँ दूसरों को और तुम मुझे पढ़ा रही हो”
श्रीमती जी ने हमें शांत करने की कोशिश की,
बेटे-बेटी ने भी इमोशनल फंडा अपनाया,
लेकिन हम बिलकुल न पिघले और
हमने गुस्से में अपना फ़ैसला सुनाया
“मृत्यु मंजूर मुझे पर ये बेहयाई मंजूर नहीं,
पिताजी ने पी लिया था जहर पर
भाई के विजातीय प्रेम को न अपनाया था,
हूँ उसी खानदान का तुम लोगों की बातों में न आऊंगा,
और अपनी ज़िद पर अड़े रहे तो,
सच कहता हूँ गंगा में डूब जाऊँगा”
सब चुप खड़े थे, और हम
खुश थे कि हमारा तीर चल गया
और ये विजातीय का काँटा
चुभने से पहले ही निकल गयाI
इस प्रपंच से कुछ दिन चैन से गुज़रे
फिर ईक दिन कॉलेज से
आते ही श्रीमती ने ख़बर सुनाई
“मेरे भाई की बेटी भाग गई”
अच्छा “शर्मा जी” की बेटी भाग गई
“कैसे पैदल या गाड़ी से” श्रीमती जी जानती थी कि
अपने साले से कभी पटरी न बैठ पाने के कारण
हमारा ये “शर्मा जी” पर बेवक्त का व्यंग्य था,
जब श्रीमतीजी की नज़रों ने हमें घूरा तो,
मुँह से बस इतना ही निकला,
‘चलो ‘सांत्वना’ दे आयें’
“बेटी भागी है, मरी नहीं है,” श्रीमती गुस्से में बोली
श्रीमती जी ने आँसू साफ़ किये
और पर्स उठाते हुए गुस्से से बोली,
“अपना ज्ञान वहाँ मत झाड़ना, भाई मेरा दुखी होगा,
उसका मूड और मत उखाड़ना,”
“तुमने क्या सवेंदनहीन समझा है हमें,
मामले की गम्भीरता को समझते हैं हम,
वादा करते हैं, “सांत्वना”
देंगे बस और मुँह तक नहीं खोलेंगे हम,”
इस बार “सांत्वना’ शब्द पर वो कुछ नहीं बोली,
हम आगे बढ़े और वो पीछे-पीछे हो ली,
हमारे साले का और हमारा ईंट-कुत्ते का बैर था,
“अपने ख़ानदान पर बड़ा नाज़ है न उसे,
आज तो गिन-गिन कर बदले लेंगे,”
सोचकर हम मन ही मन मुस्कुरा रहे थे,
ये कहेंगे, वो कहेंगे, बातों को
कल्पना में लिख-लिखकर ही मिटा रहे थे,
इतने में गन्तव्य पर पहुँचने का एहसास हुआ,
जब ड्राइवर ने ब्रेक लगाई,
साले साहब घर पर नहीं थे, उनकी पत्नी से जाना,
“रिपोर्ट लिखवाने पुलिस स्टेशन गए हुए हैं,”
“बेटी के भागने की” हम मन ही मन बोल मुस्कुराए
“आप चाय-पानी पीजिये, इतनी दूर से आये हैं आराम कीजिये,”
साले साहिब की पत्नी “जैसे हमें कुछ पता नहीं” ऐसे जता रही थी
आँखों में आँसू थे और दिखावे को मुस्कुरा रही थी,
हमने सोचा क्यों न ज्ञान की गंगा को यहीं से बहाया जाए,
जब तक “वो” नहीं आते, उनकी पत्नी को ही,
उपदेश सुनाया जाए,
“जब तक जान ना लूँ पूरी बात विश्राम न करूँगा,
आने दो साले साहब को, उन्हें भी समझाऊंगा,
अजी समझ क्या रखा है इस नए ज़माने की पीढ़ी ने हमें
आप लोग बर्दाश्त न करना
अगर बेटी लौट भी आये तो न माफ़ करना....”
“जीजाजी” आवाज़ सुनकर साले
साहब के आने का एहसास हो गया
उन्होंने सब सुन लिया, उनके चेहरे से
इस बात का भी आभास हो गया
अब तो ज्ञान का पिटारा पूरा
खोल देते हैं, इससे पहले कि,
भाई को देख श्रीमती जी रोने लगे,
सब कुछ बोल देते हैं,
“ढील दी होगी, तभी ये गुल खिलाया,
खानदान का न सोचा बेटी ने,
देखो कैसा रास रचाया,
लड़का अपनी बिरादरी का है
या फिर किसी विजातीय संग.....”
बात हमारी पूरी होने से पहले ही, वो बोल पड़े,
“जगाया उसे जाता है जो गहरी नींद में हो,
जो कर रहा सोने का ढोंग,
उसे उठाने से क्या फ़ायदा,”
ये ‘व्यंग्य’ हमारे जैसे बुद्धिजीवी
की भी समझ में नहीं आया,
हमने विस्मय से देखा साले साहिब की
तरफ और अपना सर खुजलाया,
हमारी हालत से उन्होंने अंदाज़ा लगाया
कि हम सचमुच “भोले” हैं,
और मामले के बारे में कुछ नहीं जानते,
तब वे बोले – “जीजाजी, आपके भाई की.....
फिर अपनी बहन की तरफ़ देखकर चुप हो गए और
मुझे एक कोने में ले गए और कागज़ का
एक पुलिंदा जो “प्रेम पत्र” लगता था दिखलाया,
“प्रेम-पत्र” पढ़कर मैं अवाक खड़ा रह गया
ज्ञान मेरा सारा धरा का धरा रह गया
घर आते ही अपने बेटे के विजातीय प्रेम को मंजूरी दी हमने,
और बेटी को भी पास बुला समझाया,
बेटा मिश्रा, वर्मा, या शर्मा
तुम्हें भी कोई पसंद हो तो बतला दो,
“डैड....वो पंजाबी है”
सुनकर हमने दो मिनट का मौन धारण करके अपने
खानदानी संस्कारों को तिलांजलि दी और बेटी की तरफ देखकर बोले,
“लड़का तो है न”
हमारी बात सुनकर बेटा-बेटी
शायद स्थिति को भांप चुके थे,
क्या चल रहा है उनके “डैड” के
मन में वो ये आँक चुके थे,
लेकिन अब भी नए ज़माने का फैशन
इस मास्टर-बुद्धि को समझ ना आये,
लड़के को भाये लड़के और
लड़की लड़की संग ही ब्याह रचाए !