मैं इश्क़ मुकम्मल कर आया
मैं इश्क़ मुकम्मल कर आया
मैं इश्क़ मुकम्मल कर आया,
जो भी था सब कुछ दे आया,
क्या मिला मुझे मालूम नहीं,
पाने की चाह भी खो आया।
इस पल में जितने ख्वाब बने,
अगले ही पल उतने टूट गये,
मैं इस पल का हाथ पकड़,
ख्वाबों को दूर से छू आया।
मेरी चाह थी गागर भरने की,
आंखों की झील में उतरने की,
पनघट पर हुई एक बारिश में,
मैं गागर को खाली कर आया।