मैं और तुम
मैं और तुम
मैं और तुम
एक नदी के दो किनारे,
जो उम्र भर
साथ साथ
तो चलते हैं
पर मिल नहीं पाते कभी,
हमारे दर्मियाँ
मिलने की
जो कसमसाहट
रह रह कर उभरती है
जहन में एक दूजे के,
वो चेहरों को
देख खुद के
खामोशी से
उस दर्द को
सीने में छिपा लेते हैं,
दर्द की बेइंतहा और
मिलन की आस
इसी उम्मीद में अनवरत
वो चलते हैं,
कि शायद भाग्य का मेल
किसी क्षितिज पर हो,
भावनाओं का
एक ज्वार भाटा
जो अक्सर चलता है
हम दोनों के अंदर,
वो दिल के कोने में
शांत सुषुप्त
प्रेम को उद्वेलित कर
एक टीस पैदा करता है,
प्रेम रूपी लावा
अपनी सीमाओं को तोड़
मुक्त बहने को बेकल रहता है,
पर मिलन
जन्म जन्मांतर
अधूरा ही रह जाता है
और
प्यास अनबुझी सी।।