मानव या कठपुतली
मानव या कठपुतली
कितना इतराते हैं हम
कितना घबराते हैं हम
अन जाने ख्वाबों में
यूं ही खो जाते हैं हम
कभी मनाते हैं खुशियां
कभी मनाते हैं हम गम
जाने कब समझेंगे
कठपुतलियां ही तो हैं हम।
रब की मर्जी रब की आन
रब के दम पर अपनी शान
फिर भी याद नहीं इस तन में
रब ने ही तो डाली जान
तेरा मेरा मेरा तेरा
दिन रात बस यही वहम
जाने कब समझेंगे
कठपुतलियां ही तो हैं हम।
जान सको तो जानो भाई
तन संग मन की करो सफाई
ईश्वर की रचना सब जग में
सबको मानो भाई भाई
मानुष तन मुश्किल से मिलता
हर प्राणी को करो नमन
जाने कब समझेंगे
कठपुतलियां ही तो हैं हम।
