मानव और दानव
मानव और दानव
जन्म-मृत्यु के बीच झूलता मानव,
जन्म से न कोई देव न दानव ,
सब नव-जात शिशु
माँ की आँखों के तारे ।
फिर कैसे बने दानव, जानवर और राक्षस ,
कुछ तो घटा होगा ,
कुछ तो हुआ होगा ।
किस के अभाव में ऐसा हुआ होगा ,
प्रेम के अभाव में ,
संयम के अभाव में ,
अपनेपन के अभाव में,
या शिक्षा के अभाव में ,
या फिर रोटी के अभाव में ,
किसके अभाव में डगर भूल गए
मानव बनते बनते दानव बन गए ।
संगति भी अपना रंग दिखाती
किसी को सज्जन,
किसी को दुर्जन,
किसी को योगी ,
किसी को भोगी,
किसी को सभ्य,
किसी को असभ्य
किसी को रागी ,
किसी को बैरागी
और किसी को मानव बनाते बनाते दानव बना देती।
कभी-कभी
पिज़्ज़ा बर्गर की भूख ,
मर्सिडीज की भूख,
वासना की भूख ,
महत्वाकांक्षाओं की भूख,
यह भूख मानव को दानव बना देती।
धक्का मार आगे निकलने की सोच,
असंतुष्ट मन से जीने की सोच ,
बिना कर्म किए फल पाने की सोच,
अहम सर्वस्व संजोकर रखने की सोच
यह सोच भी मानव को दानव बना देती ।
मन के रावण को मार ,
धैर्य के साथ
स्वयं की स्वयं पर जीत ,
दानव को मानव बना ही देती ।