माँ (मदर्स डे पर विशेष)
माँ (मदर्स डे पर विशेष)
अभी तो समझ न पाई थी
खुद को ...
इस दुनियाँ में औरत होने के
वजूद को...
लड़ रही थी खुद के भीतर
उठ रहे तूफान से...
पलकों पर सजे हुए
जाने कितने
अरमान थे!!
माँ बन गयी वो,
वो समझ नहीं पाई
क्या बन गयी वो?
एक नन्हा सा जीव
आस भरी निगाहों से अब
उसे देख रहा था!
अपने नन्हे नन्हें हा
थों की छुवन से
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को
माँ के रूप में
समेट रहा था ! !
वो जो पत्थर सा
लगता था
दिल वो ....
बर्फ सा निकला !
पिघल कर पानी
पानी हो गया !
औरत ने जब पहना
माँ का चोला
खुद का उसका जीवन
बेमानी हो गया ।
अपनी सोच, अपने ख्वाब
अपने संस्कार ,
अपने बच्चों में डाल कर
खुश हो जाती है माँ
यूँ ही दुनियाँ सम्भाल कर ...
पर दिल कचोट उठता है
जब जब भी उठते हैं
सवाल....
उसकी जेहनियत पे
चोट करते हैं लोग
उसकी अहमियत पे
दुनियाँ में सबसे
मुश्किल
किरदार माँ का है
देना ही देना है
पाना कहाँ है?
फिर भी हर औरत
पूरी शिद्दत से
इस किरदार को
निभाती है ।
बच्चों की हंसी में ,
खुद को भूल जाती है ।
हर बढ़ते कदम पे उनके
खुद को मिटाती है!
माँ, हर दिन खुद को
मिटाती है ।
