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Vandana Singh

Abstract

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Vandana Singh

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कह दूँ क्या?

कह दूँ क्या?

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कह दूँ क्या ? 

बहुत कुछ...कहने को 

जी चाहता है ! 

न यूँ चुप रहने को ... 

जी चाहता है ! 

पर तुम बताओ... 

सुनोगे क्या ? 


 सुनोगे ,तो क्या 

फिर मन में अपने

मेरी बातों को ... 

गुनोगे क्या ? 

जाने दो... 

अब पता है ...मुझे भी

तुम देखते हो मुझे, 

पर सुनते नहीं हो ! 

 कि मैं अपनी बातें 

जो घंटों सुनाऊँ... 


तुम बस मुस्कुरा कर

अपलक देखते हो ! 

जबाब देने की ... 

जहमत 

उठाते नहीं हो  ! 

जो पूछूँ वो सीधा 

बताते नहीं हो, 

जाओ...अब मैं भी चुप हूँ ! 

तब तक....जब तक 

मेरी चुप्पी 

तुम्हें खलने न लगे ! 


जब तक...

तुम्हें लगने न लगे, 

कि मेरा बोलना ही 

ठीक था...! 

इन बियाबानों में

सूने नीरव पथ पर

 इसके पहले

 कि तुम भटकते... 

मेरा तुम्हें 

टोकना ही ठीक था।


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