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Vandana Singh

Abstract

4  

Vandana Singh

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खुशी

खुशी

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मैं तुम्हें देना चाहती थी खुशी

वो जो मेरे पास थी ही नहीं

 तुम्हें देने को ही सही

 मैं ढूंढने लगी खुशी

 यहां ढूंढा वहां ढूंढा 

मत पूछो कहां कहां ढूंढा

 कभी धूल में कभी फूल में

 कभी बादलों में कभी तारों में

कभी भीड़ में कभी बाजारों में

 गुमशुदा सी हुई मैं

 घिरी हुई हजारों में

एक दिन कोई साया सा

मेरी आंखों के सामने डोल गया

 खुशी का कुछ एहसास हुआ

मन में कुछ ऐसा घोल गया

 नजर उठा कर देखा तो

 मेरा ही वो साया था

 मैं देख रही थी दुनिया को

वह मुझसे हुआ पराया था

बिखरे हुए खुद को मैंने 

फिर से जब संवारा 

 एक बार फिर से आईने में 

खुद को जब निहारा

 खुशी मिली वहीं 

वो मुझमें ही तो रहती थी

जो प्यार मांग रही थी मैं तुमसे

मेरे दिल में उसकी नदियां बहती थी

 मैं तुमसे ऊर्जा माँग रही थी

 वो मेरे ही रग रग में थी

 जान नहीं पायी थी मैं

 क्योंकि खुद से ही अलग मैं रहती थी

 खुद से खुद को प्यार किया

 मिली खुशी, करार मिला

 अब खुद में खोई रहती हूँ

  नहीं कोई तलाश मुझे

  जो है वो ही काफी है

  नहीं ज्यादा की आस मुझे। 

  नहीं ज्यादा की आस मुझे।।


            


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